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क्या मुर्दे भी कभी सोचते हैं

मुझे भी कुछ कहना है
मुझे भी कुछ कहना है
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ना मैं कुछ देख सकता हूँ
ना बोल सकता हूँ
और ना ही मैं कुछ
सुन सकता हूँ

मैं नहीं जानना चाहता
क्या हो रहा है मेरे आसपास
कौन जिन्दा है
और कौन मर रहा

मैं तो मशगूल हूँ बस
अपनी ही दुनिया में
और घुल रहा हूँ अपनी
रोटी-रोजी की चिंता में


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मुझमें नहीं है क्षमता

सोचने, समझने
और कुछ भी
बूझने की



सोचने समझने का काम
तो इंसान करते हैं
और मुझे लगता है कि
मैं इंसान ही नहीं रहा

मैं तो बन गया हूँ बस
एक चलता-फिरता मुर्दा
और तुम ही कहो
मुर्दे भी क्या कभी सोचते हैं

डॉ. अदिति कैलाश


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