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घर वापसी

मुझे भी कुछ कहना है
मुझे भी कुछ कहना है
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क्या अपने ही घर जाने के लिये भी मुझे सोचना पड़ेगा? पिछले कई महीनों से मैं इसी कशमकश में थी। कई बार हिम्मत करके अपने इस मकान से निकल कर अपने घर की गली में कदम भी रखा, पर ना जाने क्यूँ गली में कदम रखते ही हिम्मत जवाब दे देती। मन में तरह-तरह के सवाल उमड़ आते, कोई देख लेगा तो क्या कहेगा? इतने दिनों बाद मैं सब का सामना कैसे कर पाऊंगी? अगर मुझे दरवाजे से ही भगा दिया तो? अगर घर में इस समय माँ-पिताजी, भाई-बहन ना हो तो? अगर दरवाजा भाभी खोले तो, वो तो मुझे पहचानती भी नहीं हैं। इसी तरह के अजीबो-गरीब सवालों से घिरी मैं कब वापसी का रुख कर लेती मुझे ही पता नही होता था।


और अपने मकान में आकर मैं रात-रात भर सिसका करती थी। अपनों से दूर होने का गम क्या होता है ये मुझसे अच्छा कोई नहीं जान सकता हैं। कई बार रोते-रोते सोचती तो लगता गलती भी तो मेरी ही थी, इस तरह बिना बताये कोई अपना घर छोडता है भला। ठीक है काम बहुत जरुरी था और समय भी नहीं मिला कि किसी से कुछ कह पाते, पर भला कोई इस तरह बिना बताये जाता है।


अभी भी वो दो साल आँखों के सामने एक फिल्म की तरह चलने लगते हैं। उन दो सालों में शुरु के कई महिने तो काम में इस तरह व्यस्त रहे कि ना दिन का पता होता था ना रात का। यहाँ तक कि खाने पीने का भी होश नहीं रहता था। घर से 2-4 चिट्टियाँ भी पुराने पते पर आई, पर इतना समय ही नही निकाल पाये कि कुछ जवाब दे सकें। और इसी तरह डेढ़ साल कब पूरा हुआ पता ही नहीं चला। जब काम पूरा हुआ और हमारे पास खाली समय रहने लगा तो कई बार सोचा कि जवाब लिख दें, पर लगा अब इस जवाब का कोई महत्व नहीं।


अब जब काम पूरा हो गया और हमारे पास खाली समय भी रहने लगा तो धीरे-धीरे घर की याद भी सताने लगी। घर जाने की हिम्मत तो जुटा पा नहीं रहे थे, और रहने के लिये जगह की तलाश भी थी, सो सोचा क्यों ना कुछ दिन किराये के मकान में ही रहा जाये। आज के जमाने में मनपसन्द किराये का मकान मिलना आसान नहीं होता है, बहुत चप्पले घिसनी पडती है। बहुत खोजने के बाद आखिर एक मन-माफिक किराये का मकान मिल ही गया। पूरे दिल से हम इस मकान को घर बनाने में लग गये। पर किराये का मकान क्या कभी किसी का घर बना है जो हमारा बनता। हर एक काम के लिये हमें मकान मालिक से पूछना पडता, यहाँ तक कि किस समय घर आना है और कब बाहर जाना है ये भी मकान मालिक की मर्जी पर निर्भर करता था। कुछ दिनों तक तो ये बन्दिशें सहते रहे, पर आज़ाद पंछी कब तक पिंजरे में बन्द रहता, चाहे पिंजरा सोने का ही क्यों ना हो।


आखिर एक दिन हिम्मत जुटा ही लिये और किराये का पिंजरा तोड़ कर रुख कर लिये अपने घर की ओर। पता नहीं उस दिन कहाँ से इतनी हिम्मत आ गई थी, लग रहा था आज कितनी ही बड़ी मुसीबत क्यों ना आ जाये सभी से टकरा जायेंगे, कोई चाहे कितना ही बुरा भला क्यों ना कहे पर आज अपने घर पहुँच कर ही दम लेंगे। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, माँ-पिताजी अन्दर घुसने नहीं देंगे, भाई-बहन नज़र फेर लेंगे, भाभीयाँ पहचानेंगी नहीं, पर मैं सब को मना लूंगी। आखिर अपनों से भी कोई कब तक नाराज़ रह सकता है। खून का रिश्ता, प्यार का सम्बन्ध भी तो कुछ होता है।


आखिर हिम्मत जुटा कर निकल ही पड़े हम अपने घर की ओर। और इस तरह हो ही गई हमारी घर वापसी, हमारे अपने जागरण मंच पर। वापसी उसी घर पर जहाँ हमें इतना प्यार मिला जिसे हम शब्दों में बयाँ नहीं कर सकते। इसी घर में हम पैदा हुए और पले-बढे। यही हमें कई दोस्त मिले और बहुत से नये रिश्ते भी बने। यही वो घर था जिसने हमें एक नई पहचान दिलाई। इसी घर में हमने जीवन के बहुत सारे सबक सीखे। इस घर को और हमारे सारे परिवार को हम तहे दिल से धन्यवाद देना चाहते हैं, उनका ये निस्वार्थ प्यार ही हमें यहाँ खींच लाया और हो ही गई हमारी घर वापसी।

डॉ. अदिति कैलाश


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