मुझे भी कुछ कहना है
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कम लगता है मुझको
वो आतंकवाद
जो बम के धमाकों से
ख़त्म कर देता है जिंदगी
एक ही बार में ।
नारी जीवन में तो पल पल
छाया रहता है आतंक
और घुटती है, मरती है
वो हर पल, हर रोज ।
पानठेलों की चुभती निगाहें
आँखों से टपकती वासना
भीड़ में टटोलते कुछ हाथ
जो अक्सर दिल को
छलनी कर देते हैं ।
और इससे भी जी नहीं भरता
तो करके शरीर का बलात्कार
छोड़ देते हैं जिन्दा
घुटकर मरने
उम्र भर के लिए ।
इन दरिंदों के लिए
बच्ची, युवती, प्रौढ़ में
कोई फर्क नहीं ।
उनके लिए तो हैं ये
सिर्फ और सिर्फ
वासना की गुड़िया ।
क्या कहते हो तुम
नारी स्वतंत्र हो गई ?
पर तुम्हीं बताओ
उन चुभती नजरों से
लालची आँखों से
मैले-कुचैले हाथों से
कब होगी आज़ाद ?
क्या नारी होना अपराध है ?
या सुन्दर नारी एक अपराधी ?
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